Thursday 22 May 2014

लैंगिक मुद्दे की अनिवार्यता


लैंगिक मुद्दों पर केन्द्रित यह कार्यक्रम 5-7 मार्च के दौरान लेडी श्री राम कॉलेज में आयोजित किया गया। तीन दिनों के इस अकैदमिक अधिवेशन के दौरान  लैंगिक मुद्दे के नए संदर्भ पर न्याय और स्वतंत्रता के प्रश्न पर चर्चा हुई। इस कार्यक्रम की यह रिपोर्ट राजीव गांधी कन्टेम्परेरी इंस्टीट्यूट की टीम सहयोगी दिवाश्री माथुर ने तैय्यार की । जो अंग्रेजी  ब्लाग पर पहले प्रकाशित हो चुका है। यहां उस रिपोर्ट का संपादित अंश प्रस्तुत है। 

लेडी श्रीराम कॉलेज में लैंगिक मुद्दों की समझ पर आयोजित अधिवेशन में न्याय और स्वतंत्रता के प्रश्न  पर वर्तमान संदर्भ का विश्लेषण किया गया ।अधिवेशन में विशेषज्ञ और कार्यकर्ताओं ने मिलकर स्त्रियों के मुद्दों पर बहुत महत्वपूर्ण बहस की और इससे जुड़े हुए विषयों कानून, मीडिया, अभिव्यक्ति , हाशियाकरण , लैंगिक-भेद  और आंदोलन के प्रभाव में स्वतंत्र स्त्री के उदय और परस्पर-विरोधी चुनाव को जोड़ कर देखा। लेडी श्रीराम कॉलेज के इस आयोजन ने प्रचलित तरीकों से अलग जाकर यह स्थापित किया कि लैंगिक मुद्दे बड़े संदर्भों में स्त्री के प्रति अधिकार और सभी के लिए स्वतंत्रता में निहित है जिसका लक्ष्य स्त्री के प्रति मानवीयता है।
संयुक्त राष्ट्र के महिला संगठन (यू.एन. वीमेन) के सहयोग से  लिंग और हाशिए की आवाजों पर सामूहिक विचार-विमर्श हुआ। गोपाल गुरु, आनंद पटवर्धन और विमल थोराट ने लिंग, जाति और धर्म के अंर्तसंबंधो पर बहस की नींव डाली। दलित राजनीति और जाति के सवाल पर विचार हुआ। वक्ताओं ने यह स्पष्ट किया कि लिंग का संबंध जाति से हैं, महिलाओं के आंदोलन ने भारत में जाति की बहस को मजबूती से शामिल नहीं किया है। जो मंडल के उत्तरार्ध में उभरा। वर्तमान संदर्भ में इसे रेखांकित किया गया कि ग्रामीण भारत में  स्त्रियों के प्रति हिंसा और दलित/ पूर्वोत्तर महिलाओं के प्रति हिंसा पर ,शहरी भारत में महिलाओं के प्रति हिंसा की तुलना में कम ध्यान दिया गया है। इस संदर्भ में मीडिया की भूमिका और  चयनात्मक रिपोर्टिंग पर भी विमर्श हुआ। 
ऐसी महिलाओं के साथ बात-चीत के बाद पैनल चर्चा ही जिन्होंने सामाजिक बाधाओं का सामना किया और सशक्च हुईं। अधिवेशन की पहली वक्ता बेबी हालदार ने अपने प्रेरणादायक जीवन के बारे में बोला। बेबी हालदार घरेलू नौकरानी के तौर पर काम करती हैं और लेखिका हैं। जिनकी आत्मकथा आलो-आंधारि उनके युवापन की और घरेलू नौकरानी के तौर पर काम करते हुए । आलो-आंधारि कई भाषाओं में अनूदित हो चुका है।
जब वे छोटी थीं तभी उनके संघर्ष से भरे जीवन की शुरुआत हो गयी थी। उनका बचपन अपने निर्मम पिता और सौतेली मां के साथ पश्चिम बंगाल में बीता जो भूतपूर्व सैनिक और चालक थे। उनके पिता ने केवल 12 बरस की उम्र में उनकी शादी ऐसे व्यक्ति से कर दी जो उनसे उम्र में 14 बरस बड़ा था। वर्ष 1999 में , 25 बरस की उम्र में घरेलू हिंसा से उन्होंने अपने पति को छोड़ दिया और अपने बच्चों के साथ दिल्ली आ गयीं। उर्वशी बुटालिया ( जिन्हें बेबी हालदार खुद का मशविरेकार कहती हैं)  ने श्रोताओं से कहा कि जब बेबी हालदार जैसी महिला बोलने का निर्णय करती है तो उसकी जीवन-कथा निरपवाद रुप से कई लोगों को साहस देती है तो साहस और शक्ति की क्रांतिकारी शुरुआत होती है।
भारत की पहली महिला ऑटो ड्राइवर और शाखा से जुड़ीं दो कैब चालक सरोज और ललिता ने अपना अनुभव सुनाया कि कैसे जब कोई महिला किसी गली
,  सड़क पर गाड़ी चलाती है तो लोगों औरतों, बच्चे , परिवारों को भरोसा रहता है जबकि कोई पुरुष गाड़ी चलाता है तो कुछ परिस्थितियों में लोगों में डर पैदा होता है। फिर भी महिलाएं एक जैसे पेशे में नहीं हैं। उन्होंने भरोसा व्यक्त किया कि उनका काम महिलाओं को रुढियों की चुनौती से लड़ने में प्रेरणा देगा और वे अपने घरों से बाहर निकलेंगी। शाखा कैब की  निदेशनक मीनू बढेरा ने कहा कि गतिशीलता महिलाओं के सशक्तिकरण में किस तरह बहुत महत्वपूर्ण है।
सीडब्लयूडीएस की मेरी ई. जॉन ने महिला हिंसा: लैंगिक- भेद और हिंसा पर पुर्नविचार पर व्याख्यान देते हुए कहा कि  कैसे 1970 में महिला विरोधी हिंसा के आंदोलन की शुरुआत हुई। और 90 के दशक तक लैंगिक भेद-भाव के खिलाफ भाषा उभर कर सामने नहीं आयी। उन्होंने कहा कि वर्ष 2000  में बहुत तेज बदलाव दिखा। जब महिलाओं ने मुखरता से लैंगिक भेद-भाव के खिलाफ पिंक चड्ढी और स्लट वाक जैसे अभियानों के जरिए बोलना शुरु किया। जिससे रुढिगत प्रचलन को न केवल चुनौती मिली बल्कि सामाजिक और राजनैतिक हस्तक्षेप की नींव पड़ी।
उन्होंने कहा कि निर्भया के सामूहिक बलात्कार प्रकरण ने लैंगिक-विमर्श को फिर से बदला। हालांकि
, कई पिछले प्रसंगों में जैसे मथुरा बलात्कार प्रकरण, रमीजा बी, केस, भंवरी देवी प्रकरण में भी प्रदर्शन और नाराजगी थी। निर्भया प्रकरण में जो चीज अलग थी वह था कि इस घटना के खिलाफ प्रदर्शन सिर्फ महिला संगठनों का ही नहीं था। इस प्रकरण ने विमर्श की दिशा में बदलाव किया क्योंकि जनता की नाराजगी को राज्य की तरफ मोड़ दिया और यह बेहतर कानून और सुरक्षित शहरों की मांग उठी। उन्होंने कहा कि प्रदर्शन के दौरान जो उन्होंने जो दफ्तियां पढी उन पर नारे  लिखे थे मेरी स्कर्ट से ऊंची मेरी आवाज’,  ‘मॉय ड्रेस इज नॉट येस । ये दफ्तियां महिलाओं और पुरुषों के हाथ में थीं और यह बदलाव का संकेत था।
उन्हें दिसंबर प्रकरण के बारे जो चीज असहज करती है कि इस घटना ने घर से बाहर की दुनिया के बारे छद्म रुढिगत खतरे को स्थापित कर दिया। एनसीआरबी डेटा के जरिए उन्होंने दिखाया कि 97 % से अधिक प्रसंगों में आरोपी और पीड़ित परिचित थे। उन्होंने कहा कि इस संदर्भ में महिला विरोधी हिंसा की पृष्ठभूमि परेशान करने वाली थी और इसे चुनौती देने की जरुरत है। महिला छात्रावासों का समय , रात की शिफ्ट को कामकाज महिलाओं के लिए बंद करने , माता-पिता का अपनी बेटियों को शाम के बाद बाहर न जाने देना जैसे कुछ प्रकट तरीके आए  जिसमें प्रतिरोध जन्मता है।। सबसे जटिल स्थिति बनी और इसने हमारे   दैनिक जीवन पर असर पड़ा। महिलाओं में डर पैदा हुआ, भरोसा दरक गया और स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों में तनाव पैदा हुआ।
अधिवेशन में महिलाओं की भूमिका पर विमर्श हुआ कि नए दौर में अब कैसे महिलाएं घर और बाहर की जिम्मेदारी संभालती हैं। जबकि पुरुषों की भूमिका लगातार एक ही तरह की बनी हुई है। इस प्रत्याशा का निर्माण हुआ है कि महिलाओं को दो तरह की दुनिया में से चुनाव का मौका मिले और रुढियों को चुनौती ।
अधिवेशन के दौरान एनडीटीवी की शिखा त्रिवेदी की बनायी फिल्म सेफ सिटी डाइअलॉग्स का प्रदर्शन भी हुआ। सेफ सिटी डाइअलॉग्स छोटा वृत्तचित्र है। जिसमें महिलाओं के नजरिए से शहर की योजना का जिक्र है जिसे तुरत बनाए जाने की जरुतृरत है। इस फिल्म में मुंबई की मलिन बस्तियों में युवा महिलाओं का जीवन दिखाया गया है कि वे कैसे सफाई के बुनियादी मुद्दे के लिए संघर्ष करती हैं।
मलिन बस्तियों में यह संकट है क्योंकि  सार्वजनिक शौचालय की कमी है और दूसरे सुविधाओं की कमी है। गलियां संकरी हैं , उनमें कूड़े का ढेर है और मनुष्यों और जानवरों की गंदगी पसरी है। मलिन बस्तियों में रहने वाली युवा महिलाओं के जीवन पर आधारित यह फिल्म  बताती कि महिलाएं खराब योजनाओं और महिला हिंसा दोनों की शिकार हैं। फिल्म यह सवाल खड़ा करती है कि शहरों की योजना में क्या उन महिलाओं की आवाज पर कभी विचार किया गया?  और क्या तकनीक और सुरक्षा के जरिए महिलाओं के लिए सुरक्षित समाज बनाया जा सकता है या फिर हमें महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता के लिए संवाद की पहल करने की आवश्यकता है?
अधिवेशन में भंवरी देवी से संवाद भी शामिल था। राजस्थान में भंवरी देवी ने साथिनका काम किया। और वे राजस्थान सरकार के महिला विकास परियोजना की सहभागी थीं। वे कुम्हार जाति की हैं और उनके गांव में ऊंची जाति के गुज्जर समुदाय के लोग प्रभावशाली हैं। साथिन के तौर हुए प्रशिक्षण से वे आवाज उठा सकीं और 90 के दशक में संपन्न गुज्जर समुदाय में बाल–विवाह के खिलाफ प्रतिबद्धता से खड़ी हो सकीं।
भंवरी देवी ने बताया कि किस तरह उनके प्रतिरोध के बाद भी दो बच्चियों की शादी हो गयी और उस शादी के समारोह में पुलिस मौजूद थी। प्रतिरोध से गुज्जर समुदाय के कुछ पुरुषों ने अपमानित महसूस किया और बदला लेने के लिए उनका बलात्कार किया । भंवरी देवी को चिकित्सकीय जांच के लिए संघर्ष करना पड़ा ताकि वे एफआईआर लिखा सकें। फिर भी भंवरी देवी को इसके लिए मना कर दिया गया । वे न्याय के लिए लगातार लड़ती रहीं। उनका केस हाईकोर्ट में लंबित है।
कविता श्रीवास्तव ने भंवरी देवी की बात का अनुवाद श्रोताओं के लिए किया। भंवरी देवी के संघर्ष पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि भंवरी देवी का एफआईआर दर्ज नहीं हुआ , इसका कारण पितृसत्ता है। उन्होंने कहा  कि पुलिस , मेडिकल जांच , न्यायाधीश और अन्य जिम्मेदार लोगों ने भंवरी देवी पर भरोसा नहीं किया क्योंकि वे पितृसत्तात्मक विचारों से प्रभावित थे
:
1. बुजुर्ग महिलाओं का बलात्कार नहीं होता है।
2. बुजुर्ग पुरुष बलात्कार नहीं करते हैं।
3. ऊंची जातियों के पुरुष निम्न जाति की किसी महिला से शारीरिक संबंध स्थापित नहीं करते हैं।
ऐसी सोच को चुनौती मिली जब भंवरी देवी ने अपने बलात्कार के बारे में चुप रहने से मना कर दिया। उन्होंने न्याय के लिए डटकर लड़ने का निश्चय किया और इस रास्ते में काफी मुश्किलें थीं। आरोपी को जमानत पर रिहा कर दिया गया , भंवरी देवी के संघर्ष से विशाखा गाइडलाइन अस्तित्व में आया और इसी से लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम 2013 में अस्तित्व में आया।
कविता श्रीवास्तव ने कहा कि भंवरी देवी के संघर्ष ने हमें दिखाया है कि लोगों को महिलाओं  की देह को शर्म और सम्मान के ढांचे में देखना बंद करना चाहिए। अगर महिलाओं के बारे में इस तरह की सोच में बदलाव नहीं आया तो उनका उत्पीड़न होता रहेगा, लेकिन यदि वे इस ढांचे से आगे जा सकें तो महिलाएं खुद की पहचान कर सकेंगी जैसा कि भंवरी देवी ने किया। दूसरे दिन के अधिवेशन का इससे अंत हुआ।
इस अधिवेशन के विमर्श से यह प्रतिबिंबित हुआ कि समकालीन विमर्श में लैंगिक मुद्दे क्यों इतने महत्वपूर्ण हैं। इसने रेखांकित किया कि लैंगिक मुद्दे सिर्फ महिलाओं का विषय नहीं हैं। बल्कि महिलाओं की सुरक्षा , गतिशीलता, पेशे की आजादी, अधिकारों का संघर्ष हमारे समाज का अक्स है और इसका संबंध हम सभी से है।
  


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