साभार : लाइव मिंट |
यह पूर्वी उत्तर प्रदेश में ग्रामीण
मजदूरों के बाजार और दलित महिलाओं के बीच की कड़ी का परिदृश्य है। यह अंतर्दृष्टि
वर्ष 2000 के आखीर में उत्तरप्रदेश के तीन गांवों में फील्ड वर्क के जरिए खींची
गयी हैं, जो उचित नीतियों के बनने में
सहायक हो सकती है।
यह कड़वा सच है कि ग्रामीण श्रमिकों के बाजार में लैंगिक और जातीय विभाजन है। कुछेक
अपवादों के सिवाय, ग्रामीण दलित श्रमिक- वर्गीकरण में सबसे निचले पायदान पर हैं-
कृषि, ईंट भट्टा, निर्माण कार्य और परेशानी से भरे स्व-रोजगारों में। दलित पुरुष
कृषि से भिन्न अलग-अलग पेशों में हैं। यह महत्वपूर्ण है कि उनके आर्थिक स्रोत और
रोजगार के संबंध गांवों से बाहर है। चूंकि, दलित महिलाएं लगातार
ग्रामीण-अर्थव्यवस्था और भिन्न-भिन्न सामाजिक –प्रायोजनों के उत्तरदायित्व में, घर
और देख-भाल में लगातार बनी रही है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पुरुषों के
विस्थापन के विपरीत आंतरिक –पुनरोत्पादन में प्रतिदिन दलित महिलाओं ने अपनी भूमिका
बढायी है और स्थानीय समृद्ध लोग जिन पर वे रोजगार और श्रृण के लिए निर्भर हैं, के लिए बंधुआ मजदूरी कर रही हैं। ग्रामीण-अर्थव्यवस्था
काफी हद तक कृषि पर आधारित है। महिलाओं को
खेती के काम में सबसे कम वेतन दिया जाता है और महिलाएं सबसे कमतर काम करती हैं।
इसलिए , ग्रामीण समाज में दलित महिलाओं की स्थिति साफ तौर पर समाज, अर्थ और
राजनीति में पुरुषों से तुलनात्मक स्थिति
में पीछे है , जबकि पुरुष प्रभावी हैं। जो कि जाति, वर्ग और लैंगिक पहचाने के
अंर्तसंबंधों से रेखांकित होती है।
हालांकि, थोड़ा-थोड़ा गांव में रुपांतरण हो रहा है।
उत्तरप्रदेश के संदर्भ में, बसपा क्षेत्रीय संदर्भ में कारक रही है क्योंकि इसने
कम से रुढिवादी शुद्ध -अशुद्ध के विमर्श को चुनौती दी है। दलितों के दिमाग से
पुलिस का आंतक कम करने में, पुलिस में सुनवाई, छात्रवृत्ति में बढोत्तरी आदि को
सुनिश्चित किया है। दुर्भाग्य से, बसपा की
अस्मिता की राजनीति ने दलित महिलाओं की कमजोर सामाजिक-स्थिति की नियति , आत्मविश्वास
की कमी, दलित- महिलाओं के आर्थिक और राजनैतिक-स्वातंत्र्य में दलित पुरुषों द्वारा
हाशियाकरण के विरुद्ध सफल संघर्ष नहीं किया। फिर भी, दलित महिलाओं का धीरे-धीरे
समूह बन रहा है और वे सामाजिक और आर्थिक-शोषण के विरुद्ध प्रदर्शन कर रही हैं। इसका
प्रमाण बेहतर आय के संबंध में, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के राशन की सुनिश्चितता ,
भ्रष्टाचार के विरुद्ध मुकदमा आदि में उनका संघर्ष है। लेकिन ये संघर्ष पूरी तरह
से चुनौती नहीं देते हैं बल्कि पहले से अस्तित्व में रही व्यवस्था में रियायत पाने
की कोशिश करते हैं।
किस
तरह की नीतिगत अंतर्दृष्टि इस तरह के परिदृश्य के बारे में कहती है? स्पष्ट सीख यह है कि दलित महिलाओं के लिए
कृषि ही प्रतिदिन का मुख्य आधार है। वैसे तो , वृद्धि की योजना में बदलाव की आवश्यकता
है क्योंकि यह कृषि के अतिरिक्त दूसरे क्षेत्रों को एक साथ काम करने वाली कड़ी का
विकास नहीं करती ताकि रोजगार के अवसर बढें और श्रमिकों का समावेशन हो। नीति का परिणाम
दीर्घकालिक नहीं हो सकता है क्योंकि ये लैंगिक विभेद, शोषण और संरचनात्मक
असमानताओं को संसाधित नहीं कर सकती हैं जो कि निर्दयता से समूह को शोषित करती हैं।
इसके अलावा अब तक ग्रामीण/ खेतिहर मजदूर की जरुरतों को भिन्न-भिन्न
रोजगार में उत्पादन स्थलों के भौगोलिक छितराव को समाहित करके पुर्नसंकल्पित करने
की जरुत है।
सरकार
की नरेगा और विधवा/ बुजुर्ग
पेंशन की योजनाओं के जरिए महत्वपूर्ण ढंग से गरीबी और अभाव के विरुद्ध अनपेक्षित
सकारात्मक स्थिति बनी, लेकिन ये स्थानीय स्तर पर प्रभावी लोगों द्वारा वोट बैंक का
आधार बनाने, मजदूर गुट या बंधुआ मजदूरी को सुरक्षित करने के लिए भी उपकरण /औजार की तरह प्रयोग किया गया। इस क्षेत्र में, नरेगा श्रम के लैंगिक विभेद
के खिलाफ असफल हुआ है। यहां तक कि पेंशन की छोटी रकम भी लगातार नहीं बंटी है ,
जिससे सबसे कमजोर वर्ग अपने सम्मान की धज्जी पर भोजन, स्वास्थ्य खर्च के लिए दया
के हवाले रहता है। स्थानीय स्तर छोटा-मोटा भ्रष्टाचार प्रभावी लोगों का धन कमाने
और जमा करने का मुख्य स्रोत है। इस मोर्चे पर , लोकपाल बिल निश्चित ही अच्छी
शुरुआत है लेकिन फिर से यह कानून को प्रभावी बनाने के लिए क्रियान्वयन और सामाजिक
प्रयासों पर निर्भर करता है।
वर्तमान नीतियां स्वरोजगार के अवसरों को बढाने और कौशल –विकास संदर्भ में अपेक्षित परिणाम देती हुई प्रतीत नहीं होती हैं। कुछ महिलाएं जिनकी जरुरत थी कि वे कपड़े की सिलाई करना सीखें , घरों के बाहर थे और कम उपभोक्ताओं पर आश्रित थे। चूंकि इस तरह के प्रबंध में सामाजिक संबंध आर्थिक कारोबार को फीका करते हैं , ये महिलाएं बाजार मूल्य से कम पैसे पाती हैं और प्राय: देरी से भुगतान पाती हैं। इसके साथ-साथ महिलाओं ने लघु उद्यम को जारी रखने में वैचारिक और व्यावहारिक सामाजिक बाधा का सामना किया है। दलित परिवारों की उत्पाद की मांग भी तुलनात्मक रुप से कम थी। कौशल-प्रशिक्षण में व्यापार करने के लिए शिक्षा को जोड़ा जाना चाहिए और पहले और आगे की विकासशील कड़ियों को जोड़ना चाहिए। कई कारणों से , कौशल रोजगार दलित महिलाओं को रोजगार देने में सक्षम नहीं हैं। सामान्यतया , कौशल विकास और उद्यम विकास के क्षेत्र में सरकार द्वारा हस्तक्षेप करने के बाद भी , कथित तौर पर मजदूरी देने वाले रोजगार को स्व-रोजगार परिवारों के गुजारे के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है, स्वरोजगार नहीं। । ऐसा इसलिए भी है क्योंकि स्वरोजगार में अतिरिक्त खर्च, अनियमितता और आमदनी की अनिश्चितता है।
वर्तमान नीतियां स्वरोजगार के अवसरों को बढाने और कौशल –विकास संदर्भ में अपेक्षित परिणाम देती हुई प्रतीत नहीं होती हैं। कुछ महिलाएं जिनकी जरुरत थी कि वे कपड़े की सिलाई करना सीखें , घरों के बाहर थे और कम उपभोक्ताओं पर आश्रित थे। चूंकि इस तरह के प्रबंध में सामाजिक संबंध आर्थिक कारोबार को फीका करते हैं , ये महिलाएं बाजार मूल्य से कम पैसे पाती हैं और प्राय: देरी से भुगतान पाती हैं। इसके साथ-साथ महिलाओं ने लघु उद्यम को जारी रखने में वैचारिक और व्यावहारिक सामाजिक बाधा का सामना किया है। दलित परिवारों की उत्पाद की मांग भी तुलनात्मक रुप से कम थी। कौशल-प्रशिक्षण में व्यापार करने के लिए शिक्षा को जोड़ा जाना चाहिए और पहले और आगे की विकासशील कड़ियों को जोड़ना चाहिए। कई कारणों से , कौशल रोजगार दलित महिलाओं को रोजगार देने में सक्षम नहीं हैं। सामान्यतया , कौशल विकास और उद्यम विकास के क्षेत्र में सरकार द्वारा हस्तक्षेप करने के बाद भी , कथित तौर पर मजदूरी देने वाले रोजगार को स्व-रोजगार परिवारों के गुजारे के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है, स्वरोजगार नहीं। । ऐसा इसलिए भी है क्योंकि स्वरोजगार में अतिरिक्त खर्च, अनियमितता और आमदनी की अनिश्चितता है।
गरीबी
पर किसी भी नीति की रुपरेखा तथ्यात्मक दावे से कहती है कि गरीब समरुप समूह नहीं
हैं। वे कई तरह से विवशता , ध्रुवीकृत और विवादपूर्ण समाजों में अंत: स्थापित हैं। ऐसे गरीब लोगों जो स्थानीय
स्तर पर प्रभावी लोगों के बंधुआ या निष्ठावान हैं, का जीवन स्तर तुलनात्मक रुप से
ऊपर उठाने की राज्य की पहल कठिन परिस्थिति में हैं। गरीबी घटाने और संपत्ति –निर्माण
में , निर्भरता का विषम चक्र गरीबों की कम मात्रा में उपलब्ध संसाधनों तक पहुंच और
लाभ पर आधारित है। इसके अलावा, गरीबी जो गत्यात्मक-आर्थिक और सामाजिक-आघात और बनी हुई है, तुलनात्मक रुप से बेहतर से बदतर
स्थिति में ले जा सकती है। फील्डवर्क साफ तौर पर गरीबी की बहु-आयामी समझ का संकेत
करता है।
अंतत: विचार के लिए – नि:संदेह दलित राजनीति की सीमा है जो कि संकीर्ण लाभ के लिए प्रामाणिक औऱ प्रभावी राजनीति के प्रतिनिधित्व का क्षरण है । तब जबकि दलित महिला के समावेशन, सशक्तिकरण और हाशिए के दूसरे भारतीय लोगों जिनके साथ अन्याय हुआ है ,उन्हें तर्कसंगत वैकल्पिक राजनीति, सामाजिक संस्था या आंदोलन ने आश्वस्त किया है।
अंतत: विचार के लिए – नि:संदेह दलित राजनीति की सीमा है जो कि संकीर्ण लाभ के लिए प्रामाणिक औऱ प्रभावी राजनीति के प्रतिनिधित्व का क्षरण है । तब जबकि दलित महिला के समावेशन, सशक्तिकरण और हाशिए के दूसरे भारतीय लोगों जिनके साथ अन्याय हुआ है ,उन्हें तर्कसंगत वैकल्पिक राजनीति, सामाजिक संस्था या आंदोलन ने आश्वस्त किया है।
-इशिता मेहरोत्रा
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