साभार: IBN live |
समाज और राज्य की प्रकृति ने विस्तार और महिलाओं की राजनीति में जगह और सहभागिता पर
प्रभावी और निर्णायक असर छोड़ा है। लोकतंत्र , शासन और राज्य प्राय: लैंगिक निष्पक्षता का विचार निर्मित नहीं करता है। लेकिन ऐतिहासिक
कारकों और अनुभव दोनों का संचयी परिणाम है। राज्य और इसके सांस्थानिक निकाय और
दूसरी सामाजिक संस्थाए एक तरह के सांस्कृतिक और सामाजिक परिवर्तन के तत्वों को
प्रतिबिंबित करते हैं।
भारत में, जहां महिलाएं आधी जनसंख्या में हैं, वहीं संसद
में महिलाओं की संख्या कभी भी कुल सीटों की संख्या में 15 फीसदी से ज्यादा नहीं हुई।
राज्य की विधानसभाओं में महिला विधायकों की संख्या की लोकसभा में महिला सांसदों की
संख्या से भी बदतर है। हाल ही में 16 वीं लोकसभा चुनावों में यह जुड़ा है , 61
महिला उम्मीदवार जीती हैं। जो कि कहीं अधिक संख्या है। हालांकि, भारत के राजनीतिक संस्थाओं में महिलाओं का
प्रतिनिधित्व अभी भी कम है जो भारतीय राजनीतिक लोकतंत्र की गहरी कमजोरी को दिखाता
है।
भारत में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की भारी मांग
भारतीय राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की भारी
मांग व्यवस्थित तरीके से नहीं उठाया गया है जबकि 1976 में भारत में महिलाओं की
स्थिति पर कमेटी गठित हो गयी थी। इसके पहले केवल महिलाओं के सामाजिक –आर्थिक स्थिति के
सुधार पर ध्यान रहा है। 1988 में महिलाओं के लिए बनी राष्ट्रीय दृष्टिकोण की योजना
ने सलाह दी कि महिलाओं के 30 प्रतिशत कोटा निर्वाचित निकायों के सभी स्तर पर यह
लागू हो। पहली बार 1996 में देवेगोड़ा की सरकार महिला आरक्षण बिल लेकर आयी जिसमें संसद
और राज्य के विधानसभाओं में 33 प्रतिशत सीट के आरक्षण की बात थी। यह 18 साल से
रुका हुआ था।
सोनिया गांधी जैसे नेताओं के अफसोस जताने
और सरकार के उत्तरोत्तर प्रयासों के बावजूद 9 मार्च , 2010 को यह विधेयक केवल
राज्य सभा में सहमति पा सका और लोकसभा में आमसहमति से किया जाना फिर भी बाकी है।
अन्य देशों में महिलाओं
के आरक्षण के रुप
जबकि भारत में विधेयक को कानून में बदला नहीं गया है,
दूसरे देशों में महिला आरक्षण कई रुपों में लागू है। इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर
डेमॉक्रेटिक एंड इलेक्टोरल असिसटेंस, स्टॉकहोम , 2014 के आंकड़े दिखाते हैं कि ऐसे
देशों की संख्या बढी है जहां सार्वजनिक चुनावों में कई तरह का महिला आरक्षण लाया
गया है। हाल ही में 97 देशों ने सांविधानिक , चुनावी या राजनीतिक दलों में इस तरह
का आरक्षण लागू किया है। एशिया और अफ्रीका के कई देशों ने इस पर विचार किया है।
विदित है कि 90 के दशक के शुरुआत में फिलीपींस, पाकिस्तान और बांग्लादेश ने महिला
प्रतिनिधियों के लिए 10 -35 प्रतिशत सीटों में आरक्षण का कानून बनाया। ( कोटा प्रोजेक्ट,
इंटरनेशनल आईडीईए, स्टॉक होम यूनीवर्सिटी और इंटरनेशनल पार्लियामेंटरी यूनियन)
आरक्षण का सबसे समान तरीका है कोटा का निर्धारण या तो
महिलाओं के लिए सीट की संख्या द्वारा या फिर चुनावों में उम्मीदवार की सूची में
न्यूनतम सीट का हिस्सा तय करके। हालांकि कोटा निर्धारित करने का मतलब है कि संसद
में चुनी हुई महिलाओं की संख्या को निर्धारित कर देना। उम्मीदवारों की सूची में
न्यूनतम हिस्से के निर्धारण के लिए कानून की जरुरत हो सकती है या फिर यह अलग-अलग
राजनीतिक दलों के संविधान में लिखा हो।
भारतीय कानून में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की प्रवृत्ति का एक विश्लेषण कहता है कि
भारत की राजनीतिक संस्थाओं में महिलाओं की कम संख्या है। 15 वीं लोकसभा में, कुल
चुने गए सांसदों का केवल 10 प्रतिशत ( 543 सीट में से 59) महिलाएं थीं। चुनाव
लड़ने वाले कुल 8070 उम्मीदवारों में महिला उम्मीदवार केवल 6.9 प्रतिशत था।
16 वीं लोकसभा चुनाव में महिलाओं की भागीदारी :
16 वीं लोकसभा के चुनाव में महिला उम्मीदवारी 1957 से अब
तक की अवधि में सबसे अधिक है। कुल 8136 उम्मीदवारों में 668 महिलाएं थीं। यह कुल
उम्मीदवारों का 8.21 प्रतिशत था। 2009 के आम चुनावों से यह एक प्रतिशत की बढत है।
ध्यान लायक है कि , 16 वीं लोकसभा के चुनावों में
महिलाओं की सफलता का दर वास्तव में पुरुष उम्मीदवारों से बेहतर है। 16 वीं लोकसभा
चुनावों में, 668 महिलाओं में से 61 महिला उम्मीदवार
( कुल महिला उम्मीदवारों का 9.13 प्रतिशत) लोकसभा के लिए चुनी गयीं।
जबकि पुरुष उम्मीदवारों की सफलता का प्रतिशत केवल 6.36 प्रतिशत था। ( 7,578
पुरुषों ने चुनाव लड़ा जिसमें 482 की जीत
हुई)
राज्यों में प्रदर्शन के संदर्भ में, पश्चिम बंगाल में सबसे रोचक स्थिति रही ,
जहां महिलाओं की जीत की संख्या दुगुनी हो गयी। कुल 42 उम्मीदवारों में यह संख्या
14 है। जबकि उत्तरप्रदेश में वर्ष 2009 से 13 सीट के साथ कोई बदलाव नहीं हुआ
है।
महिलाओं के लिए आरक्षण के कई वैश्विक प्रयोग भारत के लिए प्रेरणादायक है और पूर्व
चेतावनी हैं। भारत का स्थान 113 वां है जो पाकिस्तान ( 72 वां) से नीचे है और दक्षिण अफ्रीका ( 5 वां स्थान)
में महिलाओं का प्रतिनिधित्व निचले और ऊपरी निकायों दोनों में अधिक है।
भारतीय राजनीतिक दलों की अनिच्छा
कई राजनीतिक दलों की दृष्टि और लक्ष्य दर्शाता है कि
महिलाओं की सहभागिता में और उनके रैंक में कमी आयी है। हालांकि , भारतीय राजनीतिक दल के सामने नियम और संवैधानिक के अनुकरण की चुनौतियां है :
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अनुसार , विभिन्न
समितियों में 33 प्रतिशत सीट , प्रबंध समिति में 33 प्रतिशत सदस्य और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में 33
प्रतिशत सीट महिलाओं के लिए आरक्षित है।
इसी तरह , तृणमूल कांग्रेस के संविधान में नियम- 9 विभिन्न कमेटियों में 33
प्रतिशत आरक्षण की बात करता है।
यहां तक कि नयी –नयी बनी आम आदमी पार्टी में नियम है कि 30 सदस्यों में 7 महिलाएं
उच्च पदस्थ हों।
यह दिखाता है कि राजनीतिक दलों ने महिलाओं की
सहभागिता को सुनिश्चित करने के लिए अपने तय किए नियमों का अनुकरण नहीं किया है।
दक्षिण अफ्रीका का सकारात्मक
अनुभव :
अभी की अपने राष्ट्रीय असेंबली में महिलाओं के 44.8
प्रतिशत के साथ दक्षिण अफ्रीका ने पार्टी
में स्वेच्छा से कोटा देकर सबसे अच्छा उदाहरण दिया है। अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस ने
1991 से महिलाओं के कोटा पर बहस शुरु किया और अब वहां की संसद में 43.5 प्रतिशत
है। अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस का महिलाओं के लिए स्वैच्छिक कोटा देने के निर्णय ने वहां
के विपक्षी दलों पर महत्वपूर्ण सकारात्मक प्रभाव डाला। जबकि विपक्षी दलों ने कोटा
का वचन नहीं दिया। लेकिन एएनसी का कोटा देने का बहुत अच्छा असर पड़ा। इससे विपक्षी
दलों में महिलाओं की प्रतिशतता 1994 में 14.2 प्रतिशत से बढी और 2009 में यह 31
प्रतिशत तक बढ गयी। दक्षिण अफ्रीका का अनुभव दिखाता है कि एक अकेला दल यदि कोटा
निर्धारित करता है तो यह देश के राजनीतिक वातावरण पर सकारात्मक प्रभाव छोड़ सकता है।
एस. रवि और आर. संधू ने ‘राजनीतिक दलों में महिलाएं ’ ( अप्रैल 2014 ) शोध पत्र में सलाह दिया है कि कुछ मानकों
को यदि प्रतिबद्धता से लागू किया जाए तो अभी के परिदृश्य में बेहतरीन बदलाव आ सकता
है।
· राजनीतिक दलों को जरुरत
है कि वे आंतरिक बदलाव लाने की कोशिश करे। उदाहरण के लिए दल में कोटा का निर्धारण
करना।
· भारत का चुनाव आयोग दलों को उनके संविधान और उनके संविधान के वायदे
और घोषणा पत्रों के प्रति उनकी जवाबदेही को तय करके महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है ।
· शोध-पत्र इसके महत्व को रेखांकित करता है कि कुछ
जरुरी पाठ है जो कि आरक्षण के खाके को सुधारने और इसके क्रियान्वयन में मदद कर
सकते हैं। और इस तरह भारतीय राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सुधर सकता है।
ए एस.रवि और आर संधू के अनुसार , ज्यादातर राजनीतिक
तंत्र में, यह मसला नहीं है कि शासन का तरीका क्या है । वास्तविक गेटकीपर
मतदाता नहीं है बल्कि राजनीतिक दल हैं। किसी भी राजनीतिक दल के बुनियादी सुधार के
लिए सलाह दी गयी है कि राजनीतिक दल महिला आरक्षण विधेयक को आवश्यक रुप में लागू करें।यह सुनिश्चित कर सकता है कि
महिला आरक्षण बिल का महज टोकेन बांटने जैसा नहीं होगा।
- जुंटी शर्मा पाठक और महिमा मलिक
No comments:
Post a Comment