स्रोत: अल्टरनेटिव मीडिया |
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 6 अगस्त, 2014 को किशोर न्याय विधेयक (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) को मंजूरी
दे दी। जो किशोर न्याय बोर्ड को अधिकार देता है कि बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों
में शामिल 16 साल से ऊपर एक किशोर पर वयस्क अदालत में मुकदमा चलेगा। विधेयक ऐसे समय में आया है जबकि आम
लोगों में आक्रोश है कि निर्भया सामूहिक
बलात्कार मामले में दोषी करार नाबालिग को किशोर न्याय बोर्ड द्वारा सुधार गृह में तीन
साल के लिए सौंप दिया गया।
मीडिया और कुछ खास वर्ग
के राजनीतिक नेताओं ने आम लोगों में यह धारणा बनायी है कि किशोर बहुत क्रूर और वास्तव में निर्भया की मौत
के लिए जिम्मेदार था। हालांकि, इस मामले में तथ्यों पर तथ्यहीन मीडिया रिपोर्ट भारी पड़ रही है। राजनीतिक
एजेडें द्वारा समर्थित किया जा रहा है जो जनता के दिशाहीन रोष को भुनाने का प्रयास
है।
31 अगस्त, 2013 को नाबालिग की भूमिका पर ‘‘मीडिया प्रचार” पर किशोर
न्याय बोर्ड ने एक गोपनीय आदेश में निंदा की है। बोर्ड के आदेश में यह स्पष्ट से कहा गया है कि उनकी
गवाही में न तो निर्भया और न ही निर्भया के मित्र ने किशोर को समूह से अलग करके देखा जिसने
कि बेरहमी से एक छड़ी के साथ उस पर हमला किया था जिसके लगी चोट से पखवाड़े भर के
भीतर उसकी मौत हो गयी। वास्तव में बोर्ड ने दावा किया है कि सबसे क्रूर हमलावर के रुप में
किशोर के मीडिया के चित्रण से उसके साथ भी क्रूरता की गयी।
इसमें आश्चर्य नहीं कि न तो मीडिया और न ही
राजनीतिक लोग लोगों को सही तथ्य को ले जाने को लेने के लिए कोई त्वरित कदम उठा रहे
हैं। वास्तव में मीडिया ने अपने रुख को सुधारने के लिए बहुत सीमित काम किया है।
यह स्पष्ट करना जरुरी है कि यदि किसी प्रकरण में
कोई किशोर या किशोरी वयस्क की तरह अपराध करे तो उसे वयस्क अपराध की तरह नहीं देखा
जा सकता है।
प्रख्यात न्यूरोसाइंटिस्ट लारेंस स्टाइनबर्ग ने कहा है कि मेरा तर्क है कि वयस्क
द्वारा किए गए अपराध को किशोर/ किशोरी के अपराध की तुलना में एक समान नहीं देखा जाना चाहिए। तब भी
जब उनके अपराध वयस्कों की
तरह हों , उन्हे वयस्कों की तुलना में कम कठोर सजा दी जानी चाहिए।
सिर्फ इस कारण से कि कोई
17 वर्ष की उम्र में वयस्क की तरह काम करता है , उसे वयस्क आपाराधिक प्रणाली से
सजा नहीं दी जानी चाहिए। ऐसे कार्यों को नियंत्रित करने के लिए
मानसिक परिपक्वता और शारीरिक बदलाव के साथ वयस्क व्यवहार दो अलग-अलग चीजें हैं। इसके अलावा, लोगों की राय के विपरीत, कोई लड़का जिसकी उम्र 17 साल
और 11 माह है , वह किसी वयस्क की तरह परिपक्व नहीं होता है। तंत्रिका विज्ञान और
मनोविज्ञान संरचनात्मक और कार्यात्मक परिवर्तन की व्याख्या करता है कि कि
किशोरावस्था में ये बदलाव समान तरीके से नहीं होते हैं।
बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो
तर्क करते हैं कि 18 वर्ष की सीमा भी फिसलन भरी ढलान की ओर जाना है क्योंकि 25 साल
तक की उम्र तक मस्तिष्क विकसित होता है। लेकिन किसी भी तरह से यदि सीमा तय ही की
जानी है को 18 वर्ष की उम्र बेहतर है जिसे वयस्क होने की उम्र माना जाता है। भारत
में कोई व्यक्ति जिसकी उम्र 17 वर्ष और 364 दिन हो उसे मतदान का अधिकार नहीं होगा
और साथ ही वयस्क आपराधिक प्रावधान के तहत न्यायिक प्रक्रिया नहीं चलायी जाएगी।
आम लोग कड़ी कार्रवाई की
मांग कर रहे हैं और यह उनकी भावानात्मक प्रतिक्रिया है। कानून निर्माता इन भावनाओं
के आधार पर कमजोर कानून बना रहे हैं जो प्रतिगामी और कमजोर सोच है। भारत सजा के कानूनों
से सुधारात्मक कानून की ओर मुड़ा था जब उसने 1989 किशोर कानून को निरस्त करके
किशोर न्याय (देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000 को लागू किया। नया कानून के जरिए
हम किशोरों के प्रति अत्याचार करेंगे जिनका उनके परिवारों, समाज और सरकारी प्रणाली
द्वारा देखभाल और संरक्षण नहीं किया जा सका ।
-दिवाश्री माथुर
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