Thursday 29 May 2014

प्रभावी नीतिगत हस्तक्षेप के लिए आदिवासी पहचान के यथार्थ की व्याख्या

                                                                                                                                                    तस्वीर : मानव चौधरी , द हिंदू
भारत में आदिवासी अधिकारों की सुरक्षा का संघर्ष , आदिवासी पहचान का  विचार-विमर्श अब भी पक्षपाती और रुढिवादी है। आदिवासी जनसंख्या के सरोकार और आदिवासी पहचान का विमर्श हमेशा सभ्य-असभ्य , आदिम-आधुनिक के दायरे में होता है। 
देश में राजनीतिक प्रतिनिधियों की असरदार ताकत आदिवासी अधिकारों और आदिवासी आवाजों के साथ नहीं रही है। इसका साक्ष्य यह है कि 2008 में बनी राष्ट्रीय आदिवासी नीति की रुपरेखा  अभी भी  तैय्यार हो रही है । देश में अभी तक विस्तृत राष्ट्रीय नीति  नहीं बनी है जो आदिवासी अधिकारों की गारंटी देती हो।  मजबूत राजनैतिक इच्छा शक्ति से अलग , नीति निर्माण का तरीका भी आदिम संस्कृति की मुख्यधारा की संस्कृति के समावेश पर आधारित है।

आदिवासी कल्याण के लिए आवश्यकता

आदिवासी अधिकारों के संरक्षण की आवश्यकता इसलिए उठी क्योंकि 2001 के जनगणना के अनुसार , आदिवासी जनसंख्या 8.43 करोड़ या कुल जनसंखया का 8 प्रतिशत था , जिसमें 90 प्रतिशत से अधिक की  आदिवासी जनसंख्या कमजोर सामाजिक संकेतकों के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में रह रही थी। आदिवासियों में शिशु जन्म दर, मातृ दर और नवजातों की मृत्यु के आंकड़े बहुत अधिक हैं क्योंकि स्वास्थ्य की आधारभूत संरचना और शैक्षणिक दर कम है। इसके अलावा, 40 प्रतिशत आबादी  विकास परियोजनाओं के कारण स्थायी रुप से अपने निवास स्थानों से विस्थापित हुई है।
इस विस्थापन के कारण बड़ी संख्या में आदिवासी महानगरों की ओर विस्थापित हुए हैं जहां कुछ घरेलू नौकर हैं , कुछ दुकानों पर काम करते हैं, रिक्शा-चालक हैं , यहां तक कि सेक्स- वर्कर के तौर पर काम करते हैं । कुछ को छोटे –मोटे काम में
, बुरे और आपराधिक गतिविधियों की ओर धकेल दिया गया है। लेकिन  मसौदा रेखांकित करते है कि आदिवासी पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और संघ क्षेत्रों में पांडिचेरी और चंडीगढ के सिवाय सभी राज्यों / संघ राज्य-क्षेत्रों में छितरे हुए हैं। इन तीन राज्यों और दो संघ-राज्य क्षेत्रों में आदिवासी समुदाय नहीं रहते हैं। हालांकि इनमें विस्थापित आदिवासियों की जनसंख्या रहती है। और मसौदा विस्थापन की प्रक्रिया के बारे में कहता है लेकिन यह आदिवासी समुदाय के इस वर्ग के बारे में नहीं कहता है जो पारंपरिक आदिवासी पहचान को छोड़ चुके हैं।

रुढिवादिता

मसौदे के परिच्छेद 20, जिसमें आदिवासियों के अनुसूचित या गैर अनुसूचित होने के बारे में है , लोकुर समिति की कसौटी को उद्धृत करता है कि कौन से  समुदाय अनुसूचित आदिवासी वर्ग में वर्गीकृत हो सकते हैं। जिसमें शामिल हैं :
1. आदिम लक्षण 2. विशिष्ट संस्कृति 3. भौगोलिक अलगाव 4. समुदायों से जुड़ने का संकोच 5. पिछड़ापन
नए संदर्भ में लोकुर समिति के ये सुझाव मुश्किल से प्रासंगिक हैं। मसौदा कहता है कि
उदाहरण के लिए केवल कुछ ही आदिवासियों को आज आदिम जनजाति कहा जा सकता है। दूसरे नए आधार या कसौटियों को सुनिश्चित करने की जररत है।
फिर से, जबकि मसौदा कहता है कि कहीं अधिक सुधरी हुई कसौटियों की जरुरत है। ऐसी कसौटियां जो आदिवासी पहचान के बारे में नयी हों न कि बनी बनायीं।  विनय कुमार श्रीवास्तव नीति के मसौदे के विश्लेषण तुलनात्मक रुप से कहते हैं कि कई ऐसे लक्षण जिन्हे कथित आदिम समाज में होने के बारे में कहा जाता है ,बहुत संभव है कि समकालीन समृद्ध और पितृसत्तात्मक समाज में पाए जाते हों। इसके अलावा वह लिखते हैं कि परिभाषा के संदर्भ में , हमें अवधारणाओं की जरुरत है जो प्रक्रियाओं से संबंधित हो। इससा मतलब यह है कि  वह अनुभवजन्य हो और उसकी सहायता से , हम जितना संभव हो उतना अधिक वस्तुनिष्ठता से समाज को हम वर्गीकृत कर सकें।

निष्कर्ष


नीतिगत हस्तक्षेप प्रभावी नहीं हो सकता है जब तक कि नीति बनाने का निर्णय साझेदारों की आवश्यकता से निर्देशित होता है। इसके लिए विनय श्रीवास्तव लिखते हैं कि आदिवासी समाज की यथार्थवादी समझ को मूल्य-गत पूर्वाधारणाएं रोकती हैं जैसा कि मसौदा रेखांकित करता है : आदिवासी जीवन का तरीका है सद्भाव और प्रकृति का बचाव।
देश की प्रजातीय विविधिता में किसी संस्कृति का संरक्षण आदिवासी समाज की ठहरी हुई छवि देता है। आदिवासी रहन-सहन का गतिवान यथार्थ मसौदे में मौजूद नहीं है। नीतियों में आदिवासी आवाज को शामिल करने की जरुरत है और आदिवासी समाज की गतिशील पहचान की विस्तृत स्वीकार्यता की जरुरत है। 

-अश्विन वर्गीज

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