Monday 14 April 2014

बालिका के जन्म व विकास की शर्त पर आर्थिक प्रोत्साहन

भारत में दशकों से लिंग अनुपात महिलाओं के प्रतिकूल रहा है। समय के साथ-साथ तकनीकी विकास समसामयिक लैंगिक प्रतिमानों ने लिंग अनुपात की खाई को निरंतर बढ़ाया है। 1970 के दशक में पहली बार भारत समेत तमाम एशियाई देशों में घटती बालिकाओं की संख्या पर चिंता जाहिर करते हुए नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता पर बल दिया गया लेकिन 90 के दशक तक भारत में कुछ खास कदम नहीं उठाये गये। वर्ष 1991 की दशकीय जनगणना ने पहली बार बलिकाओं (0-6 वर्ष) की तेजी से घटती संख्या पर देश का ध्यान आकृष्ट किया। इसके बाद तमाम तरह के कार्यक्रमों के जरिये घटती हुई बालिकाओं की संख्या पर अंकुश लगाने की कोशिशें की गई। कानूनी प्राविधानों के जरिये लिंग परीक्षण तथा कन्या भ्रूण हत्या पर रोक लगाने की कोशिश की गई। साथ ही आम समाज को संवेदित जागरूक करने हेतु तमाम तरह के जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता रहा है। 90 के दशक से ही कन्याओं के जन्म उसके विकास को सुनिश्चित करने के लिए कई राज्यों में सशर्त आर्थिक प्रोत्साहन (कंडीशनल कैश ट्रांसफर) योजनाओं की भी शुरूआत की, जिनके तहत् कन्याओं के अभिभावकों को उन्हें जन्म देने बेहतर शिक्षा पोषण देने के लिए आर्थिक मदद दी जाती रही हैं।इन इन योजनाओं का मुख्य उद्देश्य समाज परिवार के उस दृष्टिकोण को बदलने का रहा है, जिसके तहत लड़कियों को एक बोझ पराया धन समझा जाता रहा है।
लाडली लक्ष्मी, धन लक्ष्मी, कन्या धन योजना, भाग्यश्री जैसे नाम से संचालित होने वाली इन तमाम सशर्त आर्थिक प्रोत्साहन योजनाओं में दिये जाने वाले आर्थिक सहायता को विभिन्न शर्तों से बांधा गया है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि पैदा हुई बच्ची का पोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा विकास निर्धारित मानकों के आधार होता रहे, ऐसी योजनायें बालिका के बढ़ती उम्र के साथ-साथ अपेक्षित विकास होने पर ही आर्थिक मदद देती हैं। तमिलनाडु की बालिका सुरक्षा योजना - 1992, पहली ऐसी योजना है जिसे पिछले दो दशकों में अन्य राज्य जैसे कर्नाटक, पंजाब, हरियाणा, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश आदि ने अलग-अलग तरीके से  अपनाया। इन योजनाओं अन्य नीतिगत हस्तक्षेपों के बावजूद भी बाल लिंग अनुपात (0-6 वर्ष) निरंतर घटता जा रहा है। 1991 में जहां प्रति 1000 बालकों पर 945 बालिकायें थी वहीं 2001 में यह घट कर 927 हो गई और वर्ष 2011 में यह अनुपात 919 तक पहुंच गया। पिछले बीस वर्षों में इन योजनाओं के तहत् करोड़ों रूपये वितरित किये गये लेकिन बावजूद इसके स्थितियां सुधरने के बजाय बिगड़ती जा रही हैं। इन योजनओं का घटती हुई बालिकाओं की संख्या पर क्या असर हो रहा है, यह एक अध्ययन का विषय है, लेकिन जो कुछ भी अध्ययन इस दिशा में अभी तक हुए हैं उन्होंने इन योजनाओं के नियोजन, क्रियान्वयन और उद्देश्यों में तमाम खामियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया। हरियाणा सरकार द्वारा संचालितअपनी बेटी अपना धनयोजना के दो अलग-अलग अध्ययनों में इस बात की पुष्टि होती है कि इन योजनाओं के चलते लाभार्थी अपनी बेटियों के विकास जैसे शिक्षा तथा स्वास्थ्य में अधिक खर्च करने लगे हैं1 दिल्ली तथा हरियाणा सरकार द्वारा संचालितलाडलीयोजना के अध्ययन से पता चला है कि योजना के अंतर्गत लड़की की 18 साल की उम्र पर मिलने वाली एकमुश्त धनराशि का अधिकतर उपयोग परिवार द्वारा उसकी शादी के खर्चों के लिए उपयोग किया जाता है2 योजना आयोग के लिए किये गये एक अध्ययन ने विभिन्न राज्यों में संचालित ऐसी ही कुछ योजनाओं की समीक्षा में पाया कि योजना के क्रियान्वयन हेतु अलग-अलग विभागों में तालमेल की कमी है। वही दूसरी ओर स्थानीय प्रभावी संस्थाओं जैसे पंचायत, महिला समूहों तथा गैर सरकारी संगठनों को योजना क्रियान्वयन में भागीदारी होने के कारण अपेक्षित परिणाम नहीं दिख रहे हैं3

विभिन्न अध्ययनों से यह तो साफ होता है कि इन योजनाओं की लाभार्थी बालिकाओं के शिक्षा तथा स्वास्थ्य में बेहतर परिणाम आये हैं। इसके अलावा बाल विवाह पर भी अंकुश लगा है। पर क्या ये योजनायें कन्या भ्रूण हत्या को रोक पायी है? क्या बालिकाओं की जीवन प्रत्याशा में वृद्धि हुई है? और सबसे अहम सवाल क्या लोगों की मानसिकता में कोई बदलाव आया है। यह योजनाएं समाज में लैंगिक संबंधों सोच में कोई परिर्वतन लाने में मददगार हो रही हैं या नहीं, इसका कोई प्रमाण नहीं है, क्योंकि किसी भी योजना का कोई अदद मूल्यांकन नहीं किया गया। ऐसे कोई प्रमाण या अध्ययन नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि यह योजनायें घटते हुए लिंग अनुपात कि दिशा परिर्वतन करने में मददगार रही हैं। जनसंख्या के आंकड़ों से तो यही लगता है कि इन योजनाओं का लिंग अनुपात प्रभावित करने में कोई भूमिका नहीं है। बालिकाओं के लिए संचालित सशर्त आर्थिक प्रोत्साहन की योजनाओं का अपने मूल उद्देश्य में अप्रभावी होने के पीछे मुझे दो कारण प्रमुखतया दिखते हैं। पहला कारण इन योजनाओं के लाभार्थी समूह से संबंधित है। इस तरह की अधिकांश योजनायें सामाजिक आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के लिए संचालित की जाती हैं। विभिन्न शोध अध्ययनों ने इस बात का जिक्र बार-बार किया कि लिंग परीक्षण भ्रूण हत्या जैसी घटनायें ज्यादातर मध्यम वर्गीय या संपन्न परिवारों में ज्यादा होता है, क्योंकि उनकी पहुंच इन तकनीकी पहलुओं तक ज्यादा आसान है। साथ ही आदिवासी समूहों तथा अन्य आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों में लिंग अनुपात काफी बेहतर है। आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों में महिलाओं को घर का कमाऊ व्यक्ति के रूप में स्वीकार्यता है, जिसके वजह से उन परिवारों में लैंगिक भेद-भाव अन्य परिवारों की अपेक्षा कम है। ऐसे में इन योजनाओं को  कमजोर वर्ग तक सीमित करने से घटती हुए लिंग अनुपात की समस्या का समाधान नहीं निकाला जा सकता है। हालांकि इस प्रकार की योजनायें उस वंचित वर्ग की बालिकाओं के विकास में मददगार हो सकती हैं।

दूसरा कारण, इन नीतियों के नियोजन से संबंधित है। इस प्रकार की योजनाओं का नियोजन ही कई बार त्रुटिपूर्ण निर्णय प्रक्रिया की उपज होती है। ऐसे भी कई उदाहरण हैं, जहां इन योजनाओं का उपयोग राजनैतिक लोकलुभावन वायदों के रूप में किया जाता रहा है। ऐसी परिस्थितियों  के परिणामस्वरूप बनी नीतियों का भविष्य अधिकतर राजनैतिक अस्थिरता की शिकार होती हैं। साथ ही इन योजनाओं के नियोजन में नीति -निर्धारण के न्यूनतम मानकों की अनदेखी तथा पितृसत्ता जैसी जटिल व्यवस्था को दरकिनार कर योजनाओं का निर्माण होता है। तेजी से घटते हुए लिंग अनुपात के विभिन्न आयामों की अनदेखी कर हम प्रभावी नीतिगत हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं। इस विषय में सशर्त आर्थिक प्रोत्साहन एक उपचारात्मक हथियार है लेकिन इसकी गंभीरता को व्यापक नीतिगत हस्तक्षेप के रूप में देखा जाना चाहिए और राज्य की नीति निर्धारण में यह परिलक्षित भी होना चाहिए।
 
कई लैटिन अमेरिकी तथा अफ्रीकी विकाशसील देशों में सशर्त आर्थिक प्रोत्साहन योजनाओं से तमाम विकासपरक योजनाओं का सफलतापूर्वक संचालन किया गया है। भारत में भी विभिन्न क्षेत्रों में इस विधि का उपयोग किया जा रहा है। बालिकाओं के प्रति समाज के पितृसत्तामक दृष्टिकोण में परिर्वतन लाने लिए भी इस विधि का प्रयोग अलग-अलग राज्यों में इन योजनाओं के तहत् किया जा रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे विषयों की अपेक्षा यह विषय ज्यादा उलझा हुआ है। लिंग अनुपात पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चलाने वाले तमाम सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक तथा रीति-रिवाजों से उपजे जटिल मानसिक एवं व्यवस्थागत स्थितियों का प्रतिबिम्ब होता है। ऐसे में सोच परिर्वतन के इस मिशन में नीतिगत हस्तक्षेप का अधिक समाविष्टि और प्रगतिवादी होना आवश्यक है

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[1]  Nanda Priya, Nitin Datta and Priya Das, 2014, “Impact of Conditional Cash Transfers on Girls’ Education”, ICRW, India (http://www.icrw.org/files/publications/IMPACCT_Hires_13_03.pdf)
Sinha, N. and Joanne Yoong, 2009, “Long-Term Financial Incentives and Investment in Daughters: Evidence From Conditional Cash Transfers in North India, Working Paper No. WR-667, RAND-Labor and Population, USA.

[2]   Nanda, Bijayalaxmi, The Ladli Scheme in India: Leading to a Lehenga or a Law Degree?, Department of Political Science, Miranda House College, Delhi University. Available At (www.ipc-undp.org/pressroom/files/ipc126.pdf)
[3]   Sekher, T.V., 2010, “Special Financial Incentive Schmes for the Girl Child in India: A Review of Select Schemes”, Planning Commission, Government of India.


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