जीडीपी से परे
आजादी से अब तक भारत के आर्थिक नीति के प्रयोगों को कई
चरणों राष्ट्रीयकरण, उदारीकरण से समावेश के जरिए साठ से अधिक साल का
समय हो गया है। देश के नागरिकों का अनुभव बेहतर नहीं रहा है। भारत ने सकल घरेलू
उत्पाद (जीडीपी) जैसे औपचारिक सूचक के साथ भारी आर्थिक प्रगति की है, लेकिन जन जीवन की गुणवत्ता में सुधार
लाने में नाकाम रही है। इस तरह की प्रगति बाहर अवसरों के क्षेत्र बनाए
हैं, लेकिन आम जनता की उपेक्षा की है। लगातार
असमानता और इसका जटिल प्रसार लगातार अब भारत में सबसे बड़ी चुनौती है। जो वैकल्पिक
विकास के साधनों पर विचार के लिए उकसा रही है।
साभार : gramswaraj.wordpress.com/ |
वैकल्पिक
तरीके
लोगों
के बीच असमानता और चले आ रहे संघर्ष को कम करना दुनिया में प्रमुख चुनौतियों में
से एक है। 1972 में, छोटे एशियाई राष्ट्र, भूटान ने सकल घरेलू उत्पाद के विकल्प
के तौर पर सकल राष्ट्रीय खुशहाली (GNH) पेश किया था, जो चार स्तंभो सुशासन, टिकाऊ सामाजिक - आर्थिक विकास, सांस्कृतिक संरक्षण और पर्यावरण
संरक्षण पर आधारित था। 1990 में, सकल घरेलू उत्पाद
के विकल्प के लिए दो एशियाई विचारकों महबूब-उल- हक़ और अमर्त्य सेन ने मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) की अगुआई की जिसमें आय के साथ , स्वास्थ्य और शिक्षा शामिल था। 2008
में फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी सकल घरेलू उत्पाद के विकल्प के लिए एक
क्रांतिकारी रिपोर्ट लेकर आए जिसमें सामाजिक उन्नति पर जोर था । रिपोर्ट में सकल घरेलू उत्पाद के साथ
साथ जीवन की गुणवत्ता और स्थिरता पर जोर था। ठीक अगले साल 2009 में 'लैटिन अमेरिका और कैरेबिया में ‘अवसर मापने की असमानता' पर विश्व बैंक के विद्वानों के एक समूह
द्वारा किए गए एक अन्य अध्ययन में, बुनियादी सेवाओं में असमानता के लिए मानव अवसर सूचकांक पर जोर दिया। यह
विचार 1976 में सेन द्वारा प्रस्तावित समाज कल्याण, विकास की प्रक्रिया में, बुनियादी अवसरों की एक न्यायसंगत आपूर्ति की
जरूरत के सार्वभौमिकता लक्ष्य से प्रेरित था। 1980 के दशक में सेन के ‘क्षमता दृष्टिकोण’ के शक्तिशाली विचार ने जीवन की
गुणवत्ता और अधिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के चयन की बाधाओं को दूर करने पर जोर
देने के साथ विकास के सिद्धांत का दायरा बढ़ गया है।
मानव कल्याण पर प्रमुखता के साथ प्रगतिशील अर्थव्यवस्था के इस तरह के विचारों के
साथ विकास की नीतियों को विकसित करने के लिए, भारत जैसे नए बने देश में दूरदृष्टाओं द्वारा महसूस किया गया कि देश को निष्पक्ष लोकतंत्र की जरुरत है और 1950
में न्याय के तीन बुनियादी मूल्यों ;
न्याय
स्वतंत्रता, समानता, पर बल देते हुए भारत के संविधान में परिलक्षित हुआ। लोकतंत्र, जो व्यक्तिगत संप्रभुता और असमानता का
पर्याय है , का औपचापिक संबंध प्रगतिशील आर्थिक विकास है। लोकतांत्रिक संस्थाओं का
प्रगतिशील आर्थिक विकास पर शुद्ध सकारात्मक प्रभाव को आंका गया है , बाद में यह मान्यता रही है कि देश या
समाज में परिवर्तन की प्रक्रिया के लिए बेहतर जीवन का विचार लोकाचार की निरंतरता में जगह लेता रहा है। लेकिन,
भारत जैसे कई लोकतांत्रिक देशों में अभिजात्य ही अधिकांश प्रभाव , गरीब विरोधी
पूर्वाग्रह का संरक्षण, लोकतांत्रिक विचार को बिगाड़ते रहे
हैं। यह सामाजिक न्याय से मना करते हैं जिससे लोग वंचित रहे जाते हैं और हाशिए की
आवाजें को जगह नहीं मिलती है। यह मुख्य है कि अभी की अधिकांश विकास की नीतियां जो युद्ध के
बाद पश्चिमी विचार हैं व्यक्तिगत, पूंजी निर्माण और असमानता के तर्क पर
आधारित है । इस तरह का आर्थिक विकास जो राजनीतिक बहस को प्रभावित करती है और अराजकता
पैदा करने के लिए ,समतावाद से दूरी , और गैर –लोकतांत्रिक कार्य के लिए जाना जाता है। आर्थिक
विकास और लोकतंत्र के बीच संबंध के लिए, मौजूदा
विकास मॉडल पर पुर्नविचार करते हुए आवाज, प्रतिनिधित्व
और अधिकार को शामिल करने की जरूरत है।
आगे
की राह
16 वें लोकसभा चुनाव में राजनीतिक व्यवस्था में हाल
के बदलाव के साथ, भारत के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि
के लिए मजबूत बाजार और उदार ढांचे की दिशा में कुछ प्रमुख नीतिगत बदलाव के देखने की
उम्मीद है। इस अर्थव्यवस्था को बढावा देने से अमीर के और अमीर होने , लघु समुदायों की उपेक्षा की संभावना
बढ सकती है। पहले की सरकार ने अधिकार लीक से हटकर अधिकार आधारित नीतियों के माध्यम
से कई तरह के समुदायों की रक्षा के लिए जबरदस्त प्रयास किया है। एक मात्र उपाय यही
है कि टिकाऊ विकास सुनिश्चित करने के लिए लंबे समय तक संस्थागत ढांचे के साथ नीतियों पर बल देने से भारत
में सामाजिक परिवर्तन लाया जा सकता है। नए राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए जरुरी है
कि नीति साधनों के रुप में इस तरह के
समावेशी ढांचे जो पुनर्वितरण, सामाजिक न्याय, आर्थिक स्वायत्तता और समाज के हर
वर्ग के कल्याण को सुनिश्चित कर सकता है। राजनीतिक लोकतंत्र की जरुरत इसलिए है कि बहस और संवाद के माध्यम से हर
व्यक्ति की गरिमा और स्वतंत्रता से रहने के लिए वैकल्पिक विकास नीतिगत पहल से जगह
बनाने की जरूरत है, और इससे समाज में बंटवारे और
असमानता का सामना किया जा सकता है।
-राखी भट्टाचार्य
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