Thursday 29 May 2014

भारतीय शिल्प-कला क्षेत्र के पुनरुद्धार का प्रकरण


दुनिया भर के बड़े ब्रांड की बढती संख्या और गलियों के कोनों पर कतार में  बैठे हाशिए के विस्थापितों के साथ कनाट प्लेस दो विरोधाभासी यथार्थ का केन्द्र है। कंकरीट की इमारतों के बीच ,जो व्यापारिक पूंजीवाद का प्रमाण है, देशज शिल्प-कला किसी चकते की तरह है। जनपथ के व्यस्त बाजार को पारकर , मैं सरस्वती से मिली। जो पसीने में भीगी हुई थीं और मेरे कैमरे की तरफ देख रही थी। मैं यह समझ सकी थी कि इस तरह से उसकी तस्वीर कोई पहली बार नहीं खींची जा रही थी। वे सुनहरे रंग के कपड़े के साथ थीं जो कि उनके पति ने गुजरात के उनके गांव से लिया था और वे इस अपेक्षा से शहर आयी थीं कि उन्हें इसका अच्छा दाम मिल सकता था। और यह कुछ ऐसे विरोधाभास हैं जो केन्द्रीय प्रश्न हैं। स्वतंत्रता के बाद सरकार का औद्योगीकरण पर क्या रवैय्या रहा है? क्या भूमंडलीकरण द्वारा खड़ी हुई स्पर्धी –ताकतों और बड़े स्तर पर उत्पादन ने संस्कृति और शिल्प- कलाओं को अधिक नुकसान पहुंचाया?
उदारीकरण की नीतियों का अर्थ है कि लाइसेंस राज का अंत- सरकार ने लघु –उद्योगों का संरक्षण खो दिया और यह साफ है कि शिल्प के लघु- उत्पादन से वृहद-उत्पादन की ओर स्थानांतरण हुआ। 1960 के बाद के दिनों में सरकार की कोशिश से हरित क्रांति आया , जिससे  दोनों छोरों पर समृद्धि पहुंची। भारतीय अर्थव्यव्स्था 1991 में उदारीकृत हुई और राष्ट्रीय नीति के अभाव में या शिल्प –कलाओं के लिए अजेंडा के अभाव में भारत ने विकास के रास्ते में इस क्षेत्र को अलग-थलग कर दिया।
निर्यात की क्षमता , आय और रोजगार सृजन में हस्त-कला क्षेत्र भरोसा देता है। ऐसा अनुमान किया गया है कि शिल्प-कला अकेले देश की आबादी के 25 फीसदी को रोजगार दे सकता है। दसवीं योजना की सब-ग्रुप रिपोर्ट के अनुसार , इस क्षेत्र ने निर्माण-क्षेत्र में सकल घरेलू उत्पादन का 25 फीसदी योगदान किया। भारत में उत्पादन के संदर्भ में कालीन उद्योग सबसे बड़ा निर्यातक क्षेत्र है। यह बात महत्वपूर्ण है कि इस क्षेत्र में 50 फीसदी महिलाएं काम करती हैं।
भारतीय शिल्प-कलाकारों की क्षमता का पूरी तरह से उपयोग नहीं हुआ है।  भारतीय शिल्प- उद्योग रोजगार देने में अनुकूल नहीं रहा है। और भारतीय हस्त-शिल्प का  दुनिया के निर्यात में प्रतिशत केवल 2 है। बिचौलियों की संख्या बढने से आपूर्ति –श्रृंखला प्रभावित हुई है।  कई राज्यों में बुनकरों की आत्महत्या, खास तौर पर आंध्र प्रदेश और उत्तरप्रदेश ने  इस अनिवार्यता को रेखांकित किया है कि सरकार जल्द से जल्द जवाब दे।
सरकार, गैर- सरकारी संगठन और सांस्कृतिक , सामाजिक संगठनों को लंबे समय तक इस क्षेत्र को पुर्नजीवित करने के लिए कोशिश करना होगा। सबसे बड़ा मुददा है कि इसके वर्गीकरण का। हालांकि ये क्षेत्र बड़े स्तर पर असंगठित हैं। इन क्षेत्रों को संगठित करने के लिए आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं ( जैसा कि सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय ने कहा है) और कोई स्पष्ट प्रविधि का सूत्रीकरण नहीं हुआ है।
यह अच्छी बात है कि कुछ कानून बने हैं और शिल्पकारों की सुरक्षा और उनके अधिकारों के विस्तार के लिए प्रभावी कोशिश हुई है।  प्रतिलिप्याधिकार संसोधन विधेयक 2012 जो इन्हें बनाने वाले को उनके जीवन काल में रॉयल्टी का अधिकार देता है न कि उत्पादकों को। सृजनात्मक क्षेत्र में उनके अधिकारों को सुरक्षित करने की सही पहल हुई है। पारंपरिक ज्ञान और पारंपरिक कला की अभिव्यक्तियों को प्रभावी ढंग से सुरक्षा देने के लिए अंतर-सरकार समिति  बौदधिक संपदा और जेनेटिक संसाधनों को  लेकर विधिक प्रक्रिया के विकसित करने की कोशिश हो रही है। जिससे इसे बौद्धिक संपदा में शामिल किया जा सके । यह मील का पत्थर होगा क्योंकि यह समुदायों की कला, शिल्प, औषधि, डिजाइन, लक्ष्य और दूसरों द्वारा इसके किसी भी दुरुपयोग को रोकेगा। 
क्या भारत के पास इसकी अद्वितीय सभ्यता की तरह विकास का मौलिक मॉडल नहीं है ?
जर्मनी के फेयर ट्रेड इंटरनेशल द्वार संचालित व्यापार मेला एक अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त सूचक व्यवस्था है। यह विकासशील देश में किसानों को अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में बेहतर मूल्य देन की पेशकश करती है और कुछ निश्चित सामाजिक और पर्यावरणीय मानकों का पालन करती है। यह दो तरफा उद्देश्य को पूरा करता है - एक तरफ खरीददार को उत्पाद की गुणवत्ता और दूसरी तरफ प्राथमिक उत्पादकों को बेहतर मूल्य की आश्वस्ति करता है। भारतीय किसान पिछले बीस सालों से यूरोपीय व्यापार मेला का हिस्सा रहे हैं।
यह महत्वपूर्ण घटना है कि ब्राजील में काम करने की योजना के तहत भारतीय किसानों ने फेयर ट्रेड फाउंडेशन इंडिया का आंरभ किया, जो उसी तरीके से घरेलू बाजार पर भी पकड़ को लक्ष्य करती है। शिल्प व्यापार मेले के मॉडल का अनुप्रयोग केन्द्रीय मार्का / पंजीकरण एजेंसी के साथ इस क्षेत्र के स्थायी पुर्नजीवन का प्रमाण सकता है।

मार्क्स, जोसेफ स्कूमपीटर सृजनात्मक विनाश की अवधारणा देता है जिसमें यह परिकल्पना है कि  पूंजीवादी आर्थिक विकास पहले के  आर्थिक -क्रम को नष्ट करके खड़ा होता है।और नए के लिए रास्ते बनाता है। भारतीय शिल्प-कला के पतन का मतलब है वास्तविक आर्थिक क्रम की गिरावट। यह जरुरत है कि कुशल हाथों के प्रति आभार प्रकट किया जाए और इस क्षेत्र को पुर्नजीवित किया जाए जैसे सरस्वती के  कुशल हाथों ने भारत को अतुल्य बनाया  है।

-महिमा मलिक 

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