1990
के दशक में पश्चिमी भारत से गरीबी और आर्थिक कमजोरी के कारण किसानों की आत्महत्या की रिपोर्टें प्रकाशित होना शुरू हुई थीं और यह अब तक थमी नहीं हैं। आर्थिक तंगी के चलते मुख्य रूप से महाराष्ट्र आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, केरल, पंजाब, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, राजस्थान, हरियाणा किसानों की आत्महत्या का केन्द्र बनते गए। आत्महत्या करने वाले किसानों में अधिकतर नकदी फसल की खेती करने वाले किसान थे। प्रमुख रूप से कपास, सूरजमुखी, मूंगफली और गन्ना आदि। अधिकांश नकदी फसलों को अधिक सिंचाई की जरूरत होती है, लेकिन सिंचाई के कारगर उपायों के न होने के कारण किसानों पर आर्थिक संकट बढ़ा। नकदी फसल उगाने वाले किसानों की आर्थिक बदहाली के पीछे सूखे को प्रमुख कारणों में दिखाया गया है हालांकि यह देखा गया है कि जब सूखे के हालात नहीं रहे हैं तो भी किसानों की स्थिति में कोई खास बदलवा नहीं आया है। कर्ज, अति व्यवसायीकरण, फसल के लागत मूल्य में बढ़ोत्तरी, कीमतों में अस्थिरता, सिंचाई के तरीके और सरकारों की प्रभावी नीतिगत पहल के अभाव ने किसानों की आत्महत्या को बरकरार रखा है।
Source: rediff.com |
एनसीआरबी (NCRB) द्वारा जारी किए गए
1995-2013 तक के आंकड़ों के अनुसार भारत में
2,96,438 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। 2013 में भारत में किसानों की आत्महत्या की कुल संख्या 11,744 है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले भारतीय राज्य में 70 प्रतिशत से अधिक आबादी गांवों में रहती है और खेती पर निर्भर है। ऐसे में निश्चित ही किसानों की आत्महत्या कृषि की समस्या और चुनौतियों को साथ मानवीय त्रासदी है।
वर्ष
|
आत्महत्या की संख्या
|
||||
महाराष्ट्र
|
आंध्रप्रदेश
|
कर्नाटक
|
मध्यप्रदेश
|
भारत में आत्महत्या की कुल संख्या
|
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1995
|
1083
|
1196
|
2490
|
1239
|
10720
|
1996
|
1981
|
1706
|
2011
|
1809
|
13729
|
1997
|
1917
|
1097
|
1832
|
2390
|
13622
|
1998
|
2409
|
1813
|
1883
|
2278
|
16015
|
1999
|
2423
|
1974
|
2379
|
2654
|
16082
|
2000
|
3022
|
1525
|
2630
|
2660
|
16603
|
2001
|
3536
|
1509
|
2505
|
2824
|
16415
|
2002
|
3695
|
1896
|
2340
|
2578
|
17971
|
2003
|
3836
|
1800
|
2678
|
2511
|
17164
|
2004
|
4147
|
2666
|
1963
|
3033
|
18241
|
2005
|
3926
|
2490
|
1883
|
2660
|
17131
|
2006
|
4453
|
2607
|
1720
|
2858
|
17060
|
2007
|
4238
|
1797
|
2135
|
2856
|
16632
|
2008
|
3802
|
2105
|
1737
|
3152
|
16796
|
2009
|
2872
|
2414
|
2282
|
3197
|
17368
|
2010
|
3141
|
2525
|
2585
|
2363
|
15964
|
2011
|
3337
|
2206
|
2100
|
1326
|
14027
|
2012
|
3786
|
2572
|
1875
|
1172
|
13754
|
स्रोत : एनसीआरबी (NCRB)
|
पी.सांईनाथ ने भारत में किसानों की आत्महत्या की स्थिति और उसकी प्रक्रिया का विस्तृत अध्ययन किया है। उनकी ताजा प्रकाशित रिपोर्ट में दर्ज टिप्पणियां दिखाती हैं कि नए आंकड़ों के अनुसार भारत में किसानों की आत्महत्या की दर में गिरावट हो रही है। कई राज्यों के आंकड़ों में अप्रत्याशित कमी दर्ज की गयी है और कुछ राज्य आत्महत्या के आंकड़ों को दर्शा ही नहीं रहे हैं। अर्थशास्त्री प्रो. नागराज की टिप्पणी को उन्होंने उद्धृत किया है जिसमें वे कहते हैं कि अगर आप नकारात्मक आंकड़ों को छुपाना चाहते हैं तो आप उन्हें एक श्रेणी में रखकर नहीं छिपा सकते हैं। अगर आंकड़ों को एक से अधिक श्रेणियों में बांट दिया जाए तो जाहिर सी बात है कि नकारात्मक आंकड़ों में गिरावट होगी।1 एनसीआरबी (NCRB) ने दो तरह की श्रेणी बनायी हैं- स्वरोजगार (खेती-किसानी) और स्वरोजगार (अन्य)। ऐसा संभव है कि आत्महत्या के आंकड़ों को इकट्टठा करने की पद्धित भी आत्महत्या की संख्या में दिख रही अप्रत्याशित गिरावट का कारण हो।
इस त्रासदी की पृष्ठिभूमि देखने पर पता चलता है कि भारत में खेती का संकट 1990 के दशक से पहले शुरू हो चुका था। हरित क्रांति की सफलता कुछ क्षेत्रों, वर्गों और फसलों तक सीमित रह गयी थी। 1990 के दशक में महाराष्ट्र और कर्नाटक में किसान-आत्महत्या की खबरें सुर्खियां बन रही थीं और यही दौर भारत में नयी आर्थिक नीति और नयी राजनीतिक अभिव्यक्ति का था। इन सुधारों के मुख्य केन्द्र में बाजार व्यवस्था थी। इन नयी आर्थिक नीतियों के तहत कई तरह के उपाय किए जा रहे थे जिसमें नियंत्रण, सरकारी हस्तक्षेप को कम करना, निजी निवेशकों को स्वायत्तता, अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए बाजार खोलना आदि था। भारत सरकार के इन सुधारों और नयी अर्थनीति का समर्थन और विरोध दोनों हुआ। देश के भीतर एक बड़ा समूह इन नयी आर्थिक नीतियों का विरोध कर रहा था। कई स्पष्ट-अस्पष्ट राजनीतिक अभिव्यक्तियां थीं। लेकिन यह साफ था कि भारत में अर्थनीति को लेकर कम से कम दो प्रमुख सोच थी। एक धड़ा साफ तौर पर उदारीकरण की नीतियों का समर्थन कर रहा था और उसकी मान्यता थी कि भारत की प्रगति को तेज करने का एक रास्ता यह है कि उद्योगों को बढ़त मिले और कृषि की निर्भरता को नया आधार मिले। जबकि दूसरा समूह इसके विरोध में था।
24 जुलाई,1991 को नयी उद्योग नीति की घोषणा की, केंद्रीय बजट पेश किया गया जिसने 44 साल पुराने ढांचे को बदल दिया। भारत के भूमंडलीकरण की शुरुआत हुई। भारतीय राजनीति में सक्रिय गुटों ने इस पर अलग-अलग तरह से प्रतिक्रिया की। मार्क्सवादी इसे पूंजीवादी मॉडल कह रहे थे, गांधीवादी अब तक यह स्वप्न पाले हुए थे कि गांव को विकास का केंद्र बनाना चाहिए, राष्ट्रवादियों ने इसकी खिलाफत इसलिए शुरू कर दी थी क्योंकि उन्हें यह लगता था कि यह राष्ट्र की आधारभूत संरचना को सत्ता और प्राधिकार से वंचित कर देगा। लेकिन जो सबसे प्रमुख बात थी वह यह थी कि निश्चित ही इस दौर की शुरुआत गांव के बजाय शहर और भारत की कृषि पर पारंपरिक निर्भरता कम करने के आग्रह के साथ हुई थी। “ वर्ष 1991 के बाद विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के निर्देशन में भारत सरकार ने अनुदानों को कम करते हुए इन सारे उपादानों को क्रमश: मंहगा करने की नीति अपनाई। दूसरी ओर, विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के साथ ही खुले आयात की नीति के चलते कृषि उपज के सस्ते आयात ने भारतीय किसानों की कमर तोड़ दी। बढ़ती लागत और कृषि उपज के घटते (या पर्याप्त न बढते) दामों के दोनों पाटों के बीच भारतीय किसान बुरी तरह पिसने लगे। खेती घाटे का धंधा पहले से था, लेकिन अब यह घाटा तेजी से बढ़ने लगा और किसान कर्ज में डूबने लगे। संकट इतना घना हो गया कि देश के कई हिस्सों में किसान कोई चारा न देख बड़ी संख्या में आत्महत्या करने लगे।”2 नवउदारवाद की अभिव्यक्ति भारतीय राजनीति के स्वर में और उसकी नीतियों में आगे आने वाले दशकों में गहरी होती गयी। पी.चिदंबरम ने अपनी किताब में लिखा है कि “आपने गौर किया होगा कि यहां दो मुद्दे हैं। पहला मुद्दा है कृषि पर निर्भर रहने वाली बड़ी जनसंख्या। मुझे शक है कि निकट भविष्य में हम इस संख्या में कुछ रद्दोबदल कर पाएंगे। हमें बड़ी संख्या में लोगों को उद्योगों और दूसरे सर्विस सेक्टर में नौकरी करने को प्रेरित और उत्साहित करना होगा। कृषि भू-स्वामित्व का आधार सिकुड़ता जा रहा है, शिक्षा बढ़ रही है, युवक-युवतियों की इच्छाएं बढ़ रही हैं। लेकिन फिर भी भारत को कृषि पर लोगों की निर्भरता कम करने में कम से कम 25 वर्ष लग जाएंगे, हो सकता है कि ज्यादा भी लगें।”3 यह देखा गया है कि सरकार द्वारा उद्योगों को बढावा देने के बाद भी पिछले एक दशक के दौरान औसतन 15 लाख नौकरियां प्रतिवर्ष सृजित की गयी हैं । लगातार उद्योगों को प्राथमिक बनाए रखने की नीति से भी किसान बड़ी संख्या में खेती का काम छोड़ रहे हैं। भारत में खेती का संकट और खेती पर भरोसा घटता जा रहा है। वर्ष 2005 से 2012 के बीच एक अनुमान के अनुसार 3.7 करोड़ किसानों ने खेती छोड़कर वैकल्पिक रोजगार अपना लिया। हालांकि इस प्रक्रिया के पीछे सरकार की नीतिगत प्राथमिकताएं खेती की अनिश्चितता के अतिरिक्त एक प्रमुख कारण है।
किसानों की आत्महत्या पर किए गए कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि आत्महत्या का प्रमुख कारण सेहत की खराब दशा, कर्ज न चुका पाना आदि है। किसानों ने जिन स्रोतों से कर्ज लिया उनमें महाजन प्रमुख रहे हैं।4 सेंटर फॉर डेवलेपमेंट स्टडीज के शोध ह्यूमन सिक्यूरिटी एंड द केस ऑव फार्मर ऐन एक्सप्लोरेशन, 2007 में कहा गया है कि – किसानों की आत्महत्या की घटनाएं ठीक उस समय हुईं जब भारत में आर्थिक और सामाजिक रुप से सहायता देने वाली बुनियादी संरचनाएं ढह रही हैं। हरित क्रांति, उदारीकरण की वजह से भारत में संरचनागत बदलाव आए लेकिन किसानों की आत्महत्या की व्याख्या के संदर्भ में बदलाव के कारणों की उपेक्षा की गयी है। खेती पर लागत मूल्य बढता गया और इसने किसानों के कर्ज लेने के लिए बाध्य कर दिया। कीटनाशक और उर्वरक देने वाली कई कंपनियों ने किसानों को कर्ज देना शुरु किया इससे किसानों पर दबाव बढता गया।5 1991 में एनएसएस का सर्वेक्षण दिखाता है कि भारत में कर्जदार किसानों की तादाद 26 फीसदी थी और 2003 के आंकड़ों में 43 फीसदी परिवार कर्जदार थे। जिसमें आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, पंजाब, केरल ,कर्नाटक और महाराष्ट्र में यह क्रमश: 82, 74, 65,
64, 61 और 54 % था। फार्मर्स स्यूसाइड- फैक्ट एंड पॉसिबल पॉलिसी इन्टरवेंशन्स 2006 , मीता और राजीव लोचन द्वारा किया गया महत्वपूर्ण अध्ययन है जिसमें बताया गया है कि - आत्महत्या का प्रमुख केंद्र महाराष्ट्र का यवतमाल जिला रहा है। आत्महत्या अधिकांशत : 30 से 50 आयुवर्ग के लोगों द्वारा की गयी। अधिकतर पर आर्थिक दबाव था। अध्ययन दिखलाता है कि लोगों को सरकार द्वारा चलायी जा रही योजनाओं के बारे में जानकारी नहीं थी। यहां तक कि उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में भी जानकारी नहीं थी। फसल बीमा के बारे में ज्यादातर किसान नहीं जानते थे। इस अध्ययन में दस सूत्री सुझाव भी दिए गए थे जिनमें से प्रमुख थे: प्रशासन और ग्रामीण समुदाय के बीच संवाद , स्थानीय स्तर पर किसानों को सामाजिक-मनोवैज्ञानिक सहायता, मनी लेंडिंग एक्ट, न्यूनतम मजदूरी कानून पर अमल, पीड़ित परिवारों को मुआवजा के स्थान पर रोजगार या व्यवसाय के लिए सहायता आदि।6
नीतिगत पहल के तौर पर संघ और राज्य सरकारों के स्तर पर कई नीतिगत पहल की गयी है। राष्ट्रीय किसान आयोग ने जीविका की सुरक्षा, सीमांत और छोटे किसानों को कर्ज माफी, फसल का उचित मूल्य और न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि, संकट से जूझ रहे जिलों की पहचान, फसल बीमा आदि के उपाय किए हैं । फिर भी भारतीय खेती के सामने संकट बढ रहा है। ऐसे में आवश्यकता है कि सरकार खेती की नीतियों और उस पर पड़ रहे प्रभावों की समीक्षा करे ताकि अल्पकालिक नीतियों के बजाय ठोस दीर्घकालिक नीतियों के जरिए कृषि सुधार के व्यापक कार्यक्रमों को लागू किया जा सके।
संदर्भ :
· Sainath, P. , Maharashtra crosses 60,000 farm
suicides , http://psainath.org/maharashtra-crosses-60000-farm-suicides/
· Patnayak,
Kishan, 2006, Kisan Aandolan Dasha Aur Disha . Delhi : Rajkamal Prakashan
· Chidambaram
P., 2008, Bhartiya Arthvyavastha Pur Ek Nazar: Kuch
Hutker, Delhi : Penguin Books
· Chandrasekhar C.P. and Ghosh Jayati , The burden
of farmer’s debt, http://www.thehindubusinessline.com/2005/08/30/stories/2005083000281100.htm
· Dr.
Hebbar Ritambhara, Human Security and the Case of Farmer’s Suicide in India :
An Exploration , http://humansecurityconf.polsci.chula.ac.th/Documents/Presentations/Ritambhara.pdf
· Meeta
and Lochan Rajiv , http://agrariancrisis.in/wp-content/uploads/2013/01/2006-Farmers-Suicide-in-IndiaYASHADA.pdf, Yashwantrao Chavan Academy of Devlopment
Administration, 2006
आंकड़ों के संदर्भ :
सोमप्रभ
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