Monday 27 January 2014

कुपोषण से लड़ने के लिए राजनैतिक प्रतिबद्धता की ज़रूरत

                                          फोटो: मोहम्मद अनस 

कुपोषण की कठिनाइयों से भारत का भविष्य अर्थात बचपन हमेशा से दो चार होता रहा है। भारत की आजादी के बाद हमारी चुनी हुई सरकारें आई और तमाम विपरीत परिस्थितियों में लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूत करते हुए कई मोर्चों पर जरुरी कोशिशें हुई। भूख और कुपोषण की सदियों पुरानी समस्या को सुलझाने के लिए कई योजनाएं चलाई गयीं लेकिन इस समस्या को  पूरी तरह से हल नहीं किया जा सका। कई योजनाओं में बाल पोषण एवं भोजन की उपलब्धता को लेकर काम किया गया और उसका असर समाज के निम्न एवं मध्यम वर्गीय परिवारों पर आंशिक रूप से देखने को मिला भी।
भारतीय पुरुष एवं महिलाओं के शरीर की औसत लंबाई को कुपोषण किस तरह से प्रभावित कर रहा है, उसका उल्लेख यूनिसेफ द्वारा जारी की गई रिपोर्ट से पता चलता है। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष  2011 तक भारत में  कुपोषण के कारण सामान्य से कम लंबाई के बच्चों की संख्या लगभग 6.17 करोड़ थी। जिसके मायने हैं कि पूरी दुनिया में कुपोषण के कारण सामान्य लंबाई से कम लंबाई के बच्चों की कुल संख्या का  37.9 फीसदी हिस्सा भारत में है।  हमारे देश में दुनिया की कुपोषण से प्रभावित एक तिहाई जनसंख्या रहती है। कुपोषण से किसी भी देश की जो नकारात्मक छवि उभरती है वह सम्मानजनक नहीं है। समाज तथा जीवन की सुरक्षा से जुड़े स्वास्थ्य मामले में भारत की स्थिति कमतर है। यही कारण रहा है जिससे हम मानव-विकास में पीछे होते चले गए।
यूनिसेफ द्वारा जारी की गई इम्प्रूविंग चाइल्ड न्यूट्रीशन: द एचीवेवल इम्पीरेटिव फॉर ग्लोबव प्रोग्रेस (अप्रैल, 2013) नामक रिपोर्ट से ऐसे कई चिंताजनक आंकड़े सामने आए हैं। यह रिपोर्ट आगे बताती है कि भारत के सर्वाधिक धनी राज्य महाराष्ट्र में 2 साल से कम उम्र के 39 फीसदी बच्चे साल 2005–2006 में  कुपोषण के कारण सामान्य से कम लंबाई के थे। लेकिन  पूरे राज्य में पोषण पर किए गए सर्वे के अनुसार साल 2012 में ऐसे बच्चों की तादाद 23 फीसदी पायी गई है।  जमीनी स्थितियों पर कुपोषण के हालात निश्चित ही भयावह हैं। डाक्टरों का कहना है कि कुपोषित बच्चियों के मामले में देखा गया है कि भविष्य में उनके कुपोषित मां बनने की आशंका ज्यादा होती है और ऐसी माताओं  के नवजात शिशुओं का वज़न जन्म के समय सामान्य से कम होता है। कुपोषण जनित यह दुष्चक्र एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के बीच चलता रहता है। सरकारी योजनाओं में आश्रितों एवं निर्धनों के लिए लाभकारी नीतियाँ तो बनाई गई हैं लेकिन सेव द चिल्ड्रेन और वर्ल्ड विजन नामक संस्था के दस्तावेज के अनुसार-  भारत, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो और यमन बाल पोषण के मामले में काफी कमजोर रहा है। लेकिन प्रतिबद्धता की कमी से बेहतर परिणाम नहीं आए। भारत में जहाँ एक ओर अर्थव्यवस्था लगातार नए आयाम स्थापित कर रही है और महानगरों ने विकास किया है वहीँ इस प्रगति का असर बाल-पोषण पर अधिक नहीं दिखता। अर्थव्यवस्था की प्रगति के कारण एक बड़ी आबादी गरीबी रेखा से ऊपर उठ कर आगे आई है लेकिन आर्थिक मोर्चे पर इसका लाभ समाज के  एक छोटे से वर्ग को हुआ है। कई शोध यह बताते हैं कि भारत  में आधे से ज्यादा बच्चे सामान्य से कम वज़न और लंबाई के हैं । भारत में पोषण की कमी से 70 फीसदी के लगभग महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं । सर्वे के मुताबिक ग्वाटेमाला, मलावी और पेरु में बाल-पोषण की स्थिति में सुधार हुआ। कुल 12 देशों में अच्छा परिणाम नहीं मिल सका लेकिन वहां राजनैतिक स्थितियां बेहतर थीं। स्थिति ऐसी ही रही तो अगले 15 सालों में सामान्य से कम लंबाई के बच्चों की तादाद 45 करोड़  हो जाएगी। साक्ष्य बताते हैं कि बच्चों को कुपोषण से यदि बचाया जाए तो वे वयस्क होकर उत्पादक क्षमता में हिस्सेदारी कर सकते हैं। इससे लोगों के आय में 46 फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है। भारत में कुपोषण के कारण, उत्पादन प्रणाली में हिस्सेदारी न कर पाने से लगभग 2.3 बिलियन डालर का घाटा होता है।

एंग्लर और रवि के अध्ययन के निष्कर्ष में यह बात सामने आई कि ग्रामीण परिवारों को साल में 100 दिन के रोजगार की गारंटी देने वाले कार्यक्रम मनरेगा के कारण ग्रामीण भारत में भोजन के मद में खर्च 40 फीसदी बढ़ा है। इसका सकारात्मक असर मनरेगा में कार्य करने वाले परिवारों के पोषण पर हुआ। यूपीए शासनकाल में लिए गए कुछ फैसले मानवीय मूल्यों एवं जीवन सुरक्षा के तराजू पर खरे उतरते हैं । भोजन की सुरक्षा, मनरेगा जैसी योजनाएं काफी संख्या में भारतीय परिवारों को लाभान्वित कर रहे हैं।  कुछ राज्य सरकारों ने भी इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कदम उठाए हैं। हाल-फिलहाल में केंद्र सरकार ने गंभीरता से इस दिशा में कई काम किए हैं। फिर भी , अभी इस बात की आवश्यकता है कि अधिकतम आबादी तक इन योजनाओं का लाभ मिल सके।

मोहम्मद अनस  

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